[लेखक: 20 अप्रैल/जन्म-दिवस
स्वर यात्री जुथिका राॅय पीटी उषा ऐसे पांच हस्तियों का जन्म दिवस है आज 20 अप्रैल लेखक श्री महावीर सिंघल जी द्वारा भेजे गए संकलन पर आधारित
जो लोग कला जगत में बहुत ऊंचाई पर पहुंच जाते हैं, उनमें से अधिकांश को आचार-व्यवहार की अनेक दुर्बलताएं घेर लेती हैं; पर भजन गायन की दुनिया में अपार प्रसिद्धि प्राप्त जुथिका राॅय का जीवन इसका अपवाद था। इसका एक बहुत बड़ा कारण यह था कि उनका परिवार रामकृष्ण मिशन से जुड़ा हुआ था। अतः बचपन से ही उन्हें अच्छे संस्कार मिले।
जुथिका राॅय का जन्म 20 अपै्रल, 1920 को बंगाल में हावड़ा जिले के आमता गांव में हुआ था। सात वर्ष की अवस्था से ही वे भजन गाने लगी थीं। 1933 में आकाशवाणी कोलकाता ने काजी नजरुल इस्लाम के निर्देशन में उनके दो गीत रिकार्ड किये, जो प्रसारित नहीं हुए। अगले साल ग्रामोफोन कंपनी के प्रशिक्षक कमल दासगुप्ता ने उन्हें फिर से रिकार्ड कर प्रसारित किया। इस प्रकार जुथिका राॅय के गायन की मधुरता से सबका परिचय हो सका।
जुथिका ने मुख्यतः मीरा के भजन गाये हैं, जिन्हें गांधी जी, नेहरू और मोरारजी भाई जैसे लोग भी पसंद करते थे। एक बार वे हैदराबाद में थीं, तो सुबह ही सरोजिनी नायडू उनके आवास पर आ गयीं और वहीं उनसे कुछ भजन सुने। उन्होंने जुथिका को आशीर्वाद देते हुए बताया कि गांधी जी पुणे जेल में रहते हुए प्रतिदिन उनके भजनों के रिकार्ड सुनते थे। जुथिका के लिए यह बड़े सम्मान की बात थी। सरोजिनी नायडू ने उन्हें गांधी जी मिलने को भी कहा।
1946 में मुस्लिम लीग के ‘डायरेक्ट एक्शन’ के कारण कोलकाता में हिन्दुओं का व्यापक संहार हुआ। इसकी प्रतिक्रिया में बंगाल और निकटवर्ती क्षेत्रों में हुई। ऐसे में गांधी जी हिन्दू और मुसलमानों में परस्पर सद्भाव की स्थापना के लिए कोलकाता गये और कई दिन वहां बेलियाघाटा में रहे। एक दिन जुथिका प्रातः छह बजे अपनी मां, पिता और चाचा के साथ उनके दर्शन करने उनके आवास पर गयी। भारी वर्षा के बावजूद वहां मिलने वालों की बहुत भीड़ थी। बाहर खड़े कार्यकर्ता किसी को अंदर नहीं जाने दे रहे थे; पर गांधी जी ने जब जुथिका का नाम सुना, तो उन्हें अंदर बुला लिया।
उस दिन गांधी जी का मौन था। उन्होंने जुथिका को आशीर्वाद दिया तथा कागज पर लिखकर बात की। फिर उन्होंने उसे भजन गाने को कहा और पास के कमरे में नहाने चले गये। जुथिका ने बिना किसी संगतकार के मीरा के कई भजन सुनाये। स्नान के बाद गांधी जी उन्हें अपने साथ प्रार्थना सभा में ले गये और उस दिन की सभा का समापन जुथिका के भजनों से ही हुआ।
प्रधानमंत्री रहते हुए जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें एक बार अपने आवास पर बुलाया और भजन सुनने लगे। काम के बोझ और तनाव से ग्रस्त नेहरू जी को इससे इतना मानसिक आनंद मिला कि वे अपनी टोपी और चप्पल उतारकर धरती पर बैठ गये और दो घंटे तक उनका गायन सुनते रहे।
बंगलाभाषी जुथिका राॅय ने जो लगभग 400 गीत गाये हैं, उनमें से अधिकांश हिन्दी में हैं। इनमें कुछ होली और बरखा गीत भी हैं। फिल्मी गायन में अरुचि होने पर भी उन्होंने निर्देशक देवकी बोस तथा गीतकार पंडित मधुर से व्यक्तिगत सम्बन्धों के कारण ‘रत्नदीप’ और ‘ललकार’ में चार गीत गाये हैं।
जुथिका राॅय का परिवार रामकृष्ण मिशन से जुड़ा हुआ था। जुथिका तथा उनकी दो बहनों ने 12 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था। दोनों बहनों ने इसके बाद विवाह कर लिया; पर जुथिका राॅय ने यह व्रत जीवन भर निभाया।
मीरा और कबीर के गीतों के माध्यम से मां सरस्वती की आराधना करते वाली जुथिका राॅय को 1972 में ‘पद्मश्री’ से अलंकृत किया गया। 2002 में बांग्ला में लिखित उनकी आत्मकथा ‘आज ओ मोने पड़’ प्रकाशित हुई है।
(संदर्भ : जनसत्ता 2.5.2010)
-इस प्रकार के भाव पूण्य संदेश के लेखक एवं भेजने वाले महावीर सिघंल मो 9897230196
[19/4, 9:21 pm] लेखक: 20 अप्रैल/जन्म-दिवस
उड़नपरी पी.टी. उषा
पी.टी. उषा पहली महिला खिलाड़ी है, जिन्होंने अन्तरराष्ट्रीय खेल जगत् में भारत का नाम ऊँचा किया। उनका पूरा नाम पायोली थेवरापारम्पिल उषा है। उनका जन्म 20 अप्रैल, 1964 को केरल में कालीकट के निकट पायोली नामक गाँव में हुआ।
उनका बचपन घोर गरीबी में बीता। खेलना तो बहुत दूर पढ़ने और खाने की भी ठीक व्यवस्था नहीं थी। 1976 में केरल सरकार ने जब महिलाओं के लिए खेल विद्यालय की स्थापना की, तो उषा ने उसमें प्रवेश ले लिया। यहाँ से उनकी प्रतिभा का विकास होने लगा। उस समय उन्हें 250 रु0 प्रतिमाह छात्रवृत्ति मिलती थी। इसी में उन्हें सभी प्रबन्ध करने होते थे।
1977 में केवल 13 साल की अवस्था में उषा ने 100 मीटर की दौड़ में राष्ट्रीय कीर्तिमान बनाया। 1979 में उन्हें राष्ट्रीय खेल विद्यालय में प्रवेश मिल गया। वहाँ उन पर प्रशिक्षक श्री ओ.एम.नाम्बियार की दृष्टि पड़ी। उन्होंने पी.टी.उषा के अन्दर छिपी प्रतिभा को पहचान लिया और कठोर प्रशिक्षण द्वारा उसे निखारने में जुट गये। उन दिनों लड़कियाँ राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में कम ही भाग लिया करती थीं; पर उषा ने इस परम्परा को तोड़ा।
अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने पहली बार 1982 के एशियाई खेलों में भाग लिया। इन खेलों में उन्हें 100 और 200 मीटर की दौड़ में रजत पदक प्राप्त हुआ। इससे उनका साहस बढ़ा। 1983 में कुवैत में आयोजित फील्ड चैम्पियनशिप में उन्होंने स्वर्ण पदक जीता और नया एशियाई कीर्तिमान भी बनाया। अब उनकी दृष्टि ओलम्पिक खेलों पर थी। वह ओलम्पिक में पदक जीतकर देश का नाम ऊँचा करना चाहती थी।
1986 का लास एजेंल्स ओलम्पिक उषा के जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण बिन्दु था। वहाँ वह सेकेण्ड के सौवें हिस्से से कांस्य पदक जीतने से रह गयीं। इससे उन्हें दुःख तो बहुत हुआ; पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। उसी वर्ष सियोल में हुए एशियाई खेलों में उन्होंने 200 मी0, 400 मी0, 400 मी0 बाधा दौड़ तथा 4 x 400 मीटर रिले दौड़ में स्वर्ण पदक जीता। उनकी इन सफलताओं के कारण लोगों ने उसे ‘पायोली एक्सपे्रस’ कहना शुरू कर दिया।
आगामी सियोल ओलम्पिक में भी वह कोई पदक जीतने में सफल नहीं हो सकीं। उसकी भरपाई उसने 1989 में दिल्ली में आयोजित एशियन टैªक फैडरेशन में चार स्वर्ण और दो रजत पदक जीतकर की। 1990 के बीजिंग एशियाई खेलों में उन्होंने रजत पदक जीता। 1991 में उनका विवाह हो गया। इसके बाद वह सात साल तक खेल जगत् से प्रायः दूर ही रहीं।
1998 में जापान में आयोजित एशियन टैªक फैडरेशन में फिर से उन्होंने भाग लिया और दो कांस्य पदक जीते। यद्यपि वह इस समय एक बच्चे की माँ भी थीं। अपने अदम्य साहस एवं इच्छाशक्ति के बल पर उन्होंने भारत को अन्तरराष्ट्रीय खेल जगत में सम्मान दिलाया। भारतीय ओलम्पिक संघ ने उन्हें शताब्दी का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी घोषित किया। आज भी वह भारत की सर्वाधिक अन्तरराष्ट्रीय पदक जीतने वाली खिलाड़ी हैं।
शासन ने उन्हें 1983 में अर्जुन पुरस्कार तथा 1985 में पद्मश्री से सम्मानित किया। अब वह प्रत्यक्ष प्रतियोगिताओं में तो भाग नहीं लेेतीं; पर लड़कियों के लिए प्रशिक्षण विद्यालय चलाकर भारतीय खेल जगत की नयी प्रतिभाओं को निखारने में लगी हैं।
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[19/4, 9:21 pm] लेखक: 20 अप्रैल/इतिहास-स्मृति
विजयनगर साम्राज्य के प्रेरक देवलरानी और खुशरोखान
मध्यकालीन इतिहास में हिन्दू गौरव के अनेक पृष्ठों को वामपंथी इतिहासकारों ने छिपाने का राष्ट्रीय अपराध किया है। ऐसा ही एक प्रसंग गुजरात की राजनकुमारी देवलरानी और खुशरो खान का है।
अलाउद्दीन खिलजी ने दक्षिण भारत में नरसंहार कर अपार धनराशि लूटी तथा वहां हिन्दू कला व संस्कृति को भी भरपूर नष्ट किया। उसने गुजरात को भी दो बार लूटा। गुजरात के शासक रायकर्ण की पत्नी कमलादेवी को जबरन अपनी तथा राजकुमारी देवलरानी को अपने बड़े बेटे खिजरखां की बीवी बना लिया। अलाउद्दीन की मृत्यु के कुछ दिन बाद उसके दूसरे पुत्र मुबारकशाह ने खिजरखां को मारकर देवलरानी को अपने हरम में डाल लिया। देवलरानी खून का घूंट पीकर सही समय की प्रतीक्षा करती रही।
इस अराजकता के काल में दिल्ली दरबार में खुशरो खान अत्यन्त प्रभावी व्यक्ति बन गया। वह भी मूलतः गुजराती हिन्दू था, जिसे दिल्ली लाकर जबरन मुसलमान बनाया गया था। वह हिन्दुत्व के दृढ़ भाव को मन में रखकर योजना बनाता रहा और मुबारक शाह का सबसे विश्वस्त तथा प्रभावी दरबारी बन गया। मुबारक शाह ने उसे खुशरो खान नाम देकर अपना वजीर बना लिया।
खुशरो के मन में हिन्दू राज्य का सपना पल रहा था। उसने गुजरात शासन में अपने सगे भाई हिमासुद्दीन को मुख्य अधिकारी बनाया, जो पहले हिन्दू ही था। इसी प्रकार उसने दिल्ली में जबरन मुस्लिम बनाये गये 20,000 सैनिक भरती किये। एक बार वह मुबारक शाह के साथ तथा एक बार अकेले दक्षिण की लूट पर गया। उसने वहां विध्वंस और नरसंहार तो खूब किया; पर गुप्त रूप से कुछ हिन्दू राजाओं से मित्रता व मंत्रणा भी की। कुछ लोगों ने मुबारक शाह से उसकी शिकायत की; पर मुबारक ने उन पर विश्वास नहीं किया।
परिस्थिति पूरी तरह अनुकूल होने पर खुशरो खान तथा देवलरानी ने एक योजना बनाई। 20 अप्रैल, 1320 की रात्रि में खुशरो खान ने 300 हिन्दुओं के साथ राजमहल में प्रवेश किया। उसने कहा कि इन्हें मुसलमान बनाना है, अतः सुल्तान से मिलाना आवश्यक है। सुल्तान से भेंट के समय खुशरो के मामा खडोल तथा भूरिया नामक एक व्यक्ति ने मुबारक शाह का वध कर दिया। बाकी सबने मिलकर राजपरिवार के सब सदस्यों को मार डाला।
इसके बाद खुशरो खान ने स्वयं को सुल्तान घोषितकर देवलरानी से विवाह कर लिया। उसने अपना नाम नहीं बदला; पर महल में मूर्तिपूजा प्रारम्भ हो गयी। इससे हिन्दुओं में उत्साह की लहर दौड़ गयी। खुशरो खान ने घोषणा की - अब तक मुझे जबरन मुसलमान जैसा जीवन जीना पड़ रहा था, जबकि मैं मूल रूप से हिन्दू की संतान हूं। कल तक सुल्ताना कहलाने वाली देवलरानी भी मूलतः हिन्दू राजकन्या है। इसलिए अब हम दोनों धर्मभ्रष्टता की बेड़ी तोड़कर हिन्दू की तरह जीवन बिताएंगे।
यद्यपि यह राज्य लगभग एक वर्ष ही रहा, चूंकि ग्यासुद्दीन तुगलक तथा अन्य अमीरों के विद्रोह से खुशरो खान मारा गया; पर इससे उस विचार का बीज पड़ गया, जिससे 1336 में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हुई। खुशरो खान की यह योजना दक्षिण में ही बनी थी तथा इसे दक्षिण के अनेक हिन्दू व जबरन धर्मान्तरित मुस्लिम शासकों तथा सेनानायकों का समर्थन प्राप्त था।
(संदर्भ : डा0 सतीश मित्तल, इतिहास दृष्टि, पांचजन्य 28.6.09)
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[19/4, 9:21 pm] लेखक: 20 अप्रैल/जन्म-दिवस
सदा आज्ञाकारी विपिन बिहारी पाराशर
वरिष्ठ अधिकारियों के आदेशानुसार संघ, जनसंघ और वनवासियों के बीच काम करने वाले वरिष्ठ प्रचारक श्री विपिन बिहारी पाराशर का जन्म मैलानी (जिला लखीमपुर खीरी, उ.प्र.) में 20 अपै्रल, 1925 (श्रीरामनवमी) को हुआ था। उनके पिता श्री प्रभुदयाल पाराशर उन दिनों वहां रेलवे स्टेशन पर तारबाबू थे। विपिन जी के अतिरिक्त उनके चार पुत्र और एक कन्या भी थी। वैसे यह परिवार बरेली जिले के आंवला नामक स्थान का निवासी था।
मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर विपिन जी भारत छोड़ो आंदोलन तथा सुभाष चंद्र बोस से प्रभावित होकर स्वाधीनता संग्राम में कूद गये। इससे उनकी पढ़ाई छूट गयी। 1943-44 में स्वयंसेवक बनने के बाद उनकी जीवन यात्रा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ ही आगे बढ़ती रही। 1945 में प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण लेकर वे प्रचारक बने। उन्हें नैनीताल जिले में काशीपुर, रामनगर, जसपुर आदि स्थानों पर भेजा गया।
1947 में उन्होंने फगवाड़ा से द्वितीय वर्ष किया। 1948 में गांधी जी की हत्या तथा संघ पर प्रतिबंध के बाद उन्होंने बदायूं में सत्याग्रह का संचालन किया। कुछ समय बाद वे स्वयं भी बन्दी बना लिये गये। उन्हें मुरादाबाद जेल में रखा गया। वहां उनके साथ वैद्य गुरुदत्त तथा उनके पुत्र योगेन्द्र जी भी थे। पुलिस और जेल प्रशासन ने उनसे क्षमापत्र पर हस्ताक्षर करने को कहा, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया। अतः प्रतिबन्ध समाप्ति के बाद ही वे जेल से छूटे।
प्रतिबंध समाप्ति के बाद दीनदयाल जी ने उन्हें मुरादाबाद जिले में ही काम करने को कहा। जनसंघ की स्थापना होने पर उन्होंने बरेली और मुरादाबाद जिले में जनसंघ के संगठन को सुदृढ़ किया। 1961 में उन्हें बिहार भेजा गया। वहां उन्होंने जनसंघ के साथ ही राष्ट्रधर्म और पांचजन्य जैसे पत्रों का विस्तार भी किया। वहां उनकी क्रांतिवीर बटुकेश्वर दत्त से घनिष्ठ मित्रता हो गयी।
1970 में वरिष्ठ प्रचारक श्री सभापति सिंह चिकित्सा हेतु मुंबई गये। उनके साथ सहयोगी के नाते विपिन जी को भी भेजा गया। मुंबई में रहते हुए उन्होंने उत्तर भारतीयों को जनसंघ से जोड़ा। मुंबई से आकर वे उ.प्र. में जनसंघ के काम में लगे। आपातकाल में पुलिस उन्हें पकड़ नहीं सकी। आपातकाल के बाद विपिन जी ने बरेली जिले में संघ का काम किया।
उन दिनों पूर्वोत्तर भारत में बड़ी विकट परिस्थिति थी। देश भर से कई प्रचारकों को वहां भेजा गया। विपिन जी भी उनमें से एक थे। वहां की भाषा, मौसम, भोजन आदि भिन्नताओं से समरस होते हुए वे कारबियांगलांग, डिबू्रगढ़ व तिनसुकिया में जिला व विभाग प्रचारक रहे। फिर उन्होंने विश्व हिन्दू परिषद के संगठन मंत्री तथा ‘आलोक’ साप्ताहिक के प्रबंध संपादक के नाते भी काम किया। उनके परिवार में प्याज-लहसुन का भी प्रयोग नहीं होता था; पर पूर्वोत्तर में उन्हें सब कुछ खाना पड़ा। यद्यपि विपिन जी के सभी परिजन संघ से जुड़े हैं। फिर भी इससे उनके बड़े भाई बहुत नाराज हुए।
‘विद्या भारती’ तथा ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ द्वारा पूर्वोत्तर भारत के छात्रों के लिए कई छात्रावास देश के विभिन्न स्थानों पर चलाये जा रहे हैं। पश्चिमी उ.प्र. में भी ऐसे कई छात्रावास हैं। वृद्धावस्था के कारण जब प्रवास कठिन हो गया, तो वर्ष 2004 से विपिन जी उ.प्र. में वृन्दावन के ‘केशवधाम’ में रहते हुए इनकी देखरेख करने लगे।
हिन्दी, अंग्रेजी तथा पूर्वोत्तर की कई भाषाओं के ज्ञाता विपिन जी ने पूर्वोत्तर भारत के अज्ञात स्वाधीनता सेनानियों के बारे में कई लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कराए। संगठन की आज्ञा को सर्वोपरि मानने वाले विपिन जी का 26 जनवरी, 2014 को केशवधाम में ही निधन हुआ।
(संदर्भ : विपिन जी का हस्तलिखित पत्र)
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[19/4, 9:22 pm] लेखक: 20 अप्रैल/बलिदान-दिवस
नक्सली हिंसा के शिकार वीर माणिक्यम्
आंध्र प्रदेश और उसमें भी तेलंगाना का क्षेत्र लम्बे समय से नक्सली गतिविधियों का केन्द्र रहा है। रूस और चीन के वामपंथी नेताओं का हाथ उनकी पीठ पर रहता था। वहां से उन्हें हथियार और पैसा भी आता था। अतः गांव और कस्बों में वही होता था, जो नक्सली चाहते थे। यद्यपि अब उनके पैर उखड़ चुके हैं। गांव और जंगलों में ‘लाल सलाम’ की जगह अब ‘भारत माता की जय’ और ‘वन्दे मातरम्’ के स्वर सुनायी देने लगे हैं; पर यह स्थिति लाने में सैकड़ों युवा देशप्रेमी कार्यकर्ताओं ने अपनी जान दी है। ऐसे ही एक वीर थे तिम्ममपेट गांव के निवासी श्री माणिक्यम्।
माणिक्यम् अपने गांव तिम्ममपेट के मंदिर में पुजारी थे। अतः धर्म और देश के प्रति भक्ति उनके खून में समाहित थी। उनका व्यवहार सभी गांव वालों से बहुत अच्छा था। अतः वे पूरे गांव में बहुत लोकप्रिय थे। संघ का प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद उनके विचारों में और प्रखरता आ गयी। गांव में युवाओं की शाखा भी लगने लगी।
नक्सली प्रायः उसके गांव में आकर धनी किसानों और व्यापारियों को लूटते थे। जो उनकी बात नहीं मानते थे, उनकी हत्या या हाथ-पैर काट देना उनके लिए आम बात थी। इसके लिए नक्सलियों की लोक अदालतें काम करती थीं। शासन भी डर के मारे इनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करता था। कहने को तो वे स्वयं को गरीबों का हितचिंतक कहते थे; पर वास्तव में वे गुंडे, माफिया और लुटेरों का एक संगठित गिरोह बन चुके थे।
माणिक्यम् की लोकप्रियता को देखकर नक्सलियों ने उसे अपना साथी बनने को कहा। वे चाहते थे कि हर महीने गांव वालों से एक निश्चित राशि लेकर माणिक्यम् ही उन तक पहुंचा दिया करे; पर माणिक्यम् ने इसके लिए साफ मना कर दिया। इतना ही नहीं, वह गांव के युवकों को उनके विरुद्ध संगठित करने लगा। इससे वह नक्सलियों की आंखों में खटकने लगा।
माणिक्यम् के मामा नारायण गांव के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। वे वारंगल जिला पंचायत के अध्यक्ष भी रह चुके थे। 20 अपै्रल, 1965 को नक्सलियों का एक दल गांव में आया। वे नारायण को पकड़कर गांव से बाहर ले गये और उनसे एक बड़ी राशि की मांग की। जैसे ही माणिक्यम् को यह पता लगा वह सब काम छोड़कर उधर ही भागा, जिधर नक्सली उसके मामा जी को ले गये थे। कुछ ही देर में दोनों की मुठभेड़ हो गयी। नक्सलियों ने माणिक्यम् और नारायण दोनों को मारना-पीटना शुरू कर दिया।
नक्सली संख्या में काफी अधिक थे; पर माणिक्यम् ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने ताकत लगाकर उनके नेता के हाथ से कुल्हाड़ी छीन ली और उस पर ही पिल पड़ा। इससे उसका सिर तत्काल ही धड़ से अलग हो गया। कुछ देर में दूसरे की भी यही गति हुई तथा तीसरा बाद में मरा। बाकी नक्सली भी सिर पर पांव रखकर भाग गये; पर इस संघर्ष में माणिक्यम् को भी पचासों घाव लगे। उसका पूरा शरीर लहू-लुहान हो गया। चार-पांच लोगों से अकेले लड़ते हुए वह बहुत थक भी गया था। अतः वह भी धरती पर गिर पड़ा।
इधर नारायण ने गांव में आकर सबको इस लड़ाई की बात बताई। जब गांव के लोग वहां पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि माणिक्यम् के प्राण पखेरू उड़ चुके हैं। माणिक्यम् की वीरता का समाचार राज्य की सीमाओं को पार कर देश की राजधानी दिल्ली तक पहुंच गया। अतः राष्ट्रपति महोदय की ओर से उसकी विधवा पत्नी को ‘कीर्ति चक्र’ प्रदान किया गया। आंध्र के मुख्यमंत्री ने हैदराबाद में उन्हें सम्मानित किया। सामान्यतः यह सम्मान सैनिकों को ही दिया जाता है। ऐसे नागरिक बहुत कम हैं, जिन्हें यह सम्मान मिला हो।
इस घटना से पूरे गांव तथा आसपास के क्षेत्र में बड़ी जागृति आयी। अतः नक्सलियों ने ही डरकर उधर आना बंद कर दिया।
(कृ.रू.सं.दर्शन/भाग 1, पृष्ठ 113)
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